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महाराजपुरम सीतारामन कृष्णन (24 अगस्त 1898 को जन्म हुआ) ने भारत सरकार से प्रतिष्ठित पद्म भूषण पुरस्कार प्राप्त किया। वे एनजीआरआई के प्रारम्भ के पीछे प्रेरक शक्ति थे और वर्ष 1961-1964 के दौरान संस्थान के निदेशक थे। वे तत्कालीन प्रतिष्ठित भारतीय विज्ञान कोंग्रेस के भूविज्ञान अनुभाग के अध्यक्ष थे। वे भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के अध्यक्ष बनने वाले प्रथम भारतीय नागरिक थे। एनजीआरआई में कार्यभार लेने से पहले भारतीय खान ब्यूरो (नई दिल्ली), भारतीय खनि विद्यापीठ (धनबाद) के निदेशक, आँध्र विश्वविद्यालय, वाल्टेयर में भूविज्ञान एवं भूभौतिकी विभागों के अध्यक्ष रह कर उन्होंने देश की सेवा की। डॉ. कृष्णन द्वारा रचित "भारत बर्मा का भूविज्ञान" शीर्षक शास्त्रीय पाठ्य पुस्तक भारत में हरेक भूविज्ञान छात्र के लिए बाइबिल की तरह है।

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इनका जन्म 21 सितंबर 1922 को हुआ। इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी बी.एससी. (ऑनर्स), एम.एससी. (भौतिकी) और प्रो. के.एस. कृष्णन के प्रर्यवेक्षण में डी.फिल. (1950) की उपाधि प्राप्त की, इन्होंने सिडनी विश्वविद्यालय से पी.एचडी. (भूभौतिकी) की (1954)। वे तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग (ओ.एन.जी.सी.), देहरादून में अधीक्षक भूभौतिकीविद् (1957-62); पेट्रोलियम अन्वेषण संस्थान, ओ एन जी सी, देहरादून के निदेशक (यू एन एस एफ परियोजना) (1962-64); निदेशक, राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (1964-78; 1981-83), साथ-साथ भारत के महासर्वेक्षक (1972-76); कुलपति, बनारस हिंदू विश्वाविद्यालय, वाराणसी (1978-81); मुख्य् समन्वयकर्ता, यूएनडीपी परियोजना, एनजीआरआई (1983-86); राष्ट्रीय प्रोद्यौगिकी संस्थान, वरंगल के निदेशक बोर्ड के अध्यक्ष (2001-09); भारत सरकार के हाइड्रोकार्बन महानिदेशालय की सलाहकार परिषद् के सदस्य, (2001-09) रहे। .

डा. हरि नारायण ने आस्ट्रेलिया में विस्तृत गुरुत्व एवं चुम्बकीय सर्वेक्षण किए हैं और आस्ट्रेलिया के पूर्वी तथा मध्य भागों पर उनके द्वारा किए गए पथप्रदर्शक कार्य ने विवर्तनिकी और अधस्त‍ल भूगर्भीय एवं भूपर्पटीय संरचनाओं पर नया प्रकाश डाला है। अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, जो कि अब केशवदेव मालवीय पेट्रोलियम अन्वेषण संस्थान, ओएनजीसी, देहरादून के नाम से जाना जाता है, के प्रथम निदेशक के रूप में डॉ. नारायण ने पेट्रोलियम भूविज्ञान, द्रोणि अध्ययन, भूभौतिकीय व्याख्या में अनुसंधान सुविधाएँ स्थापित की और पेट्रोलियम अन्वेषण हेतु विस्तृत एकीकृत अध्ययन किए। एनजीआरआई के निदेशक के रूप में डॉ. हरि नारायण ने भूकंप विज्ञान, अन्वे्षण भूभौतिकी, वायुवाहित चुम्बमकीय सर्वेक्षण, भूभौतिकीय यंत्रीकरण, शैल यांत्रिकी, शैलों तथा खनिजों के उच्च-दाब भौतिक गुणधर्म, पुराचुम्बकीय प्रयोगशाला, चुम्बकीय वेधशाला, भूरासायनिकी, भूकालानुक्रम विज्ञान तथा भूवैज्ञानिक अध्ययन प्रभाग जैसे कई नए अनुसंधान समूहों की स्थापना की।

डॉ. हरि नारायण ने भारतीय एवं विदेशी जर्नलों में 200 से अधिक शोध पत्र एवं लेख प्रकाशित किए और 30 के लगभग विद्यार्थियों का उनकी पी.एचडी. उपाधि के लिए पर्यवेक्षण किया। भूकंप विज्ञान में उनके कार्य ने जलाशय संबद्ध भूकंपों के लिए नए मापदण्डों की स्थापना की और भारतीय उपमहाद्वीप में और उसके चारों ओर ऊपरी प्रावार संरचनाओं का निर्धारण किया। उन्होंने भारत के मात्रात्मक भूकंपनीयता मानचित्र, ऊष्मा प्रवाह मानचित्र तैयार किया। देशी वायुवाहित सर्वेक्षणों में अनुसंधान एवं विकास कार्य और मैसूर एवं मध्य प्रदेश राज्यों में प्राप्त परिणामों ने खनिज अन्वेषण पर नया प्रकाश डाला है। उनके नेतृत्व में, यू एन डी पी के परियोजना दल ने आँध्र प्रदेश के कडपा क्षेत्र के खनिज संसाधनों पर कई प्रकाशन किए हैं। दक्षिण भारत में अधिकतम रत्न गुणता वाले हीरों का उत्पादन करने वाली एक नई किम्बरलाइट का पता लगाना अति उत्तेजक उपलब्धि थी। धारा प्रतिचयन की कार्य प्रणाली बाद में जी एस आई को सौंपी गई।

पुरस्कार और सम्मान:

  1. उनके द्वारा प्राप्त किए गए विविध पुरस्कार एवं सम्मानों में से, अध्यक्ष, भूविज्ञान एवं भूगोल अनुभाग, भारतीय विज्ञान कोंग्रेस असोसियेशन, (1972);
  2. पृथ्वी विज्ञान में प्रथम यू जी सी राष्ट्रीय प्राध्यापक (1973);
  3. भारतीय भूभौतिकीय संघ (1973-75);
  4. पद्मश्री, भारत सरकार (1974);
  5. भारतीय भूभौतिकीय संघ का दशवार्षिक पुरस्कार (1976);
  6. आंध्र विश्वविद्यालय की मानद प्राचार्यवृत्ति (1977);
  7. डी.एससी., भारतीय खनि विद्यापीठ, धनबाद (1978);
  8. राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, भारत के अध्यक्ष (1979-80);
  9. भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी की अधिसदस्यता (1981);
  10. एम.एन. साहा शत जयंती पुरस्कार, भारतीय विज्ञान कोंग्रेस (1994);
  11. प्रथम पेट्रोटेक जीवन-काल उपलब्धि पुरस्कार (1999);
  12. राष्ट्रीय खनिज उत्कृष्टता पुरस्कार, खान मंत्रालय, भारत सरकार (2002);
  13. भारत के माननीय प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से महा अध्यक्ष पदक, भारतीय विज्ञान कोंग्रेस असोसियेशन (2007) का उल्लेख अवश्य किया जाना है।
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विनोद के गौर भारतीय खगोल-भौतिकी संस्थान, बेंगलूरू-560034 के विशिष्ट प्रोफेसर हैं।

भारतीय विज्ञान, शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आई आई एस ई आर) कोलकता के ऐडजंक्ट प्रोफेसर भी हैं।

डॉ. विनोद गौर ने बनारस विश्वविद्यालय और इम्पीरियल कॉलेज में भूभौतिकी का अध्ययन किया जहाँ उन्होंने भू-विद्युत चुम्बकिकी में अब तक न सोचा हुआ "आतिथेय शैल प्रभाव" का आविष्कार किया। इस आविष्कार के लिए 1959 में, लंदन विश्विविद्यालय से डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी की उपाधि प्राप्त की। इसके तुरन्त बाद उनकी शैक्षिणिक वृत्ति की शुरूआत राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला, यू.के. में एक वैज्ञानिक के रूप में हुई ।

बाद में 1966 में, उन्होंने रूड़की विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में कार्यभार ग्रहण किया जहाँ उन्होंंने सिग्नल विश्लेषण, प्रतिलोम सिद्धांत और अभिकलनी भूभौतिकी की अंतर्दृष्टिपूर्ण विषय वस्तुओं का समावेश करते हुए भूभौतिकी में एक आधुनिक शैक्षिणिक कार्यक्रम आरंभ किया। बाद में इनका प्रचार-प्रसार यूजीसी द्वारा अन्य विश्वविद्यालयों में अल्प-अवधि गहन पाठ्यक्रमों के प्रायोजन के जरिए किया गया जो कि रूड़की में डॉ. गौर द्वारा आयोजित किए जाते थे। सन् 1983 में, वे राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान के निदेशक के रुप में हैदराबाद आए और अवधारणा सूत्रीकरण एवं प्रयोग रूपांकन द्वारा निर्देशित वैज्ञानिक दृढता के साथ संस्‍थान के अनुसंधान कार्यक्रमों का पुनर्गठन करना शुरू किया (नेचर, अप्रैल 12, 1984)।

विज्ञान के प्रति गौर के महत्वपूर्ण योगदान निम्नवत हैं: i) अधस्तल भौमकीय चालकों की विद्युत चुम्बकीय अनुक्रिया में आतिथेय-शैल प्रभाव का आविष्कार एवं स्पष्टीकरण (1959), ii) उत्त‍राचंल की टोंस घाटी में एक सुरंग के आर-पार धीमे विरूपण का प्रत्यक्ष मापन द्वारा मुख्य हिमालय भ्रंश के एक छोर से दूसरे छोर तक भारतीय फलक एशियाई प्लेट को ~ 1 सें.मी./प्रति वर्ष की दर से अध:विक्षेपित करने की अवधारणा की प्रायोगिक पुष्टि (1971), iii) भारत में किए गए प्रथम भूकंपी टॉमोग्राफी प्रयोगों के जरिए मोटे दक्कन स्थलमंडल का आविष्कार (1986), iv) वैश्विक स्थान निर्धारण प्रणाली (जी पी एस) भूगणित तथा दक्षिणी प्रायद्वीप में विकृति दर के लिए एक उच्चतर सीमा का प्रयोग करके युरेशियाई फलक के संदर्भ में भारतीय फलक के वेग का पहला मात्रात्मक मापन (1995), v) विस्तृत बैंड भूकंपविज्ञान का प्रयोग करके दक्षिण भारतीय शील्ड् (1996) एवं उत्तरपूर्वी भारत (2005) के प्रथम उच्चा विभेदन भूपर्पटीय चित्र और, vi) वैश्विक कार्बन फ्लक्सों को व्यवरुद्ध करने के लिए हैन्ले, लद्दाख में भारतीय खगोलीय वेधशाला में उनके द्वारा स्थापित डब्ल्यू एम ओ मान्यता प्राप्त CO2 प्रयोगशाला में उत्पन्न अति-उच्च परिशुद्धता वायुमंडलीय सांद्रण डाटा (0.1 पीपीएम) का प्रयोग करके भारत एवं मध्य एशिया पर पहला भारतीय प्रयोग किया गया (2007)।

वैज्ञानिक प्रयासों को आगे बढ़ाने में उनके योगदान निम्नवत हैं (फिजिक्स टुडे, 2001): i) आधुनिक भूभौतिकी पाठ्यक्रम का रूपांकन, (यू जी सी, 1970 के), ii) एन जी आर आई अनुसंधान कार्यक्रमों का पुनर्गठन iii) सी बी एस ई की आठवीं एवं दसवीं कक्षाओं की विज्ञान पुस्तकों का एकीकृत रूपांकन तथा लेखन (1990), iv) भारत सरकार के सचिव के रूप में समुद्री उपग्रह तथा महासागर सूचना सेवाओं का रूपांकन एवं कार्यान्वयन, और आधुनिक अंटार्कटिका अनुसंधान (1989-92), v) हैदराबाद में जनता तक विज्ञान कार्यक्रम की स्थापना करना (1984), जो कि अब एक जोशपूर्ण राज्य-व्यापी आंदोलन के रूप में तैयार हुआ है।

प्रोफेसर गौर भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आई एन एस ए), भारतीय विज्ञान अकादमी तथा तृतीय विश्व विज्ञान अकादमी के अधिसदस्य हैं। उनको प्रदान किए गए पुरस्कारों में भटनागर पुरस्कार (1980), अमरीकी भूभौतिकी संघ का द् फ्लिन्न पुरस्कार (2000), भारतीय विज्ञान कांग्रेस का साहा जन्म शताब्दी पुरस्कार (2006), और आई एन एस ए व्याख्यान पुरस्कार: जी पी चटर्जी स्मारक व्याख्यान (1991), और डी एन वाडिया पदक व्याख्यान (2007)। उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, आंध्र विश्वविद्यालय, वाल्टेयर और जवाहरलाल नेहरू तकनीकी विश्वविद्यालय, हैदराबाद द्वारा डॉक्टरेट ऑफ साईंस उपाधियाँ (सम्मानार्थ) भी प्रदान की गईं।

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धरमजीत गुप्ताशर्मा का जन्म पबना जिले (अब बंगलादेश में) के सेराजगंज में 16 जुलाई, 1932 को हुआ था। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1950 में भौतिकी ऑनर्स के साथ बी.एससी. और 1952 में रेडियो भौतिकी एवं इलेक्ट्रॉनिकी में एम.एससी. की। दोनों में उन्होंने विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। उन्हें भारत सरकार की वैज्ञानिक जनशक्ति समिति की अनुसंधान अध्येतावृत्ति दी गई थी, और उन्होंने प्रो. अरुण के. चौधरी के पास रोडियो भौतिकी एवं इलेक्ट्रॉनिकी संस्थान (आर पी ई) में करीब 2 वर्ष अनुसंधान अध्येता के रूप में कार्य किया, तब उन्हें पी. एचडी. के बिना ही आर. पी. ई. में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्होंने 1956 से 1965 तक भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जी एस आई), कलकत्ता में कार्य किया, उसके बाद वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् (सी एस आई आर) के राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (एन जी आर आई) में कार्यभार ग्रहण किया, जहाँ वे निदेशक के रूप में जून1992 में सेवा निवृत्त हुए।

शैक्षणिक और अनुसंधान योगदान:

प्रोफेसर गुप्ताशर्मा ने भारत में जी एस आई और बाद में एन जी आर आई में भूभौतिकीय अन्वेषण उपकरणों के विकास के लिए पथ प्रदर्शक कार्य किया। उन्होंने भूमि, वायुवाहित एवं पोतवाहित क्रिया कलापों के लिए कई उपकरणों का रूपांकन किया जिनका व्यापक उपयोग किया गया। उन्होंने अपने दल के साथ आँध्र प्रदेश के वज्रकरूर में हीरा-समृद्ध किम्बरलाइट का पता लगया। उन्होंने भूभौतिकीय मापनों की व्याख्या करने के लिए सैद्धान्तिक एवं भौतिक स्तर का प्रतिरूपण किया, शीघ्रतर, अधिक परिशुद्ध अंकीय संख्यात्मक फिल्टर संकारकों का आविष्कार किया; दर्शाया कि विद्युत-अपघटनी टंकियों में निम्न आवृत्ति विद्युत प्रतिरोधकता प्रतिरूपण सतह ध्रुवण के कारण गलत हो जाता है; दर्शाया कि एक बिन्दु पर आस-पास के विद्युत क्षेत्रों द्वारा विद्युत विभव के प्रति योगदान की संकल्पना का प्रयोग करके प्रकाशित एक 'प्रमेय' गलत था; दर्शाया कि एक संपाती-पाश ई एम प्रणाली की क्षणिक अनुक्रिया सिवाय वैद्युतरसायनिक ध्रुवणीयता की उपस्थिति में अपने चिह्न को परिवर्तित नहीं कर सकती। उन्होंने एक यादृच्छिक बहुतलीय वस्तु के कारण उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र के अभिकलन के लिए एक नवीन विधि का आविष्कार किया; इसको बाद में कोई भी बहुतलीय वस्तु के कारण उत्पन्न गुरुत्व क्षेत्र के अभिकलन के लिए अनुप्रयुक्त किया गया। उन्होंने गाड़े हुए लक्ष्य की वास्तविक एवं आभासी ध्रुवणीयता के आवृत्ति स्पेक्ट्रमों के बीच एक संबंध का आविष्कार किया। उन्होंने 43 अनुसंधान लेखों की रचना की।

अन्य योगदान:

उन्होंने जारी महाद्वीप-महाद्वीप अभिसरण की प्रकृति को सही रूप में समझने के लिए यूरेशियाई विवर्तनिक फलक के संदर्भ में भारतीय विवर्तनिक फलक की सापेक्ष गति के अति दीर्घ आधार-रेखा व्यतिकरणमिति (वी एल बी आई) मापनों की आवश्यकता और महत्व को बताया। उन्होंने पृथ्वी संरचनाओं के गुरुत्व क्षेत्र के प्रति प्रक्षेपणास्त्र प्रमोचन प्रणालियों की सुग्राहिता को अभिकलित किया। उन्होंने सिद्ध किया कि हिमालयी संघट्टन इलाके के साथ-साथ सर्वत्र भूकंपीय जोखिम एक जैसा नहीं है।

पुरस्कार

  1. आई एन एस ए की अधिसदस्यता के लिए निर्वाचित हुए (1987); परिषद् सदस्य (1991-93)।
  2. आई ए एससी, बेंगलूरू के अधिसदस्य निर्वाचित हुए (1987)।.
  3. विविध अन्य अधिसदस्यताओं, पुरस्कारों एवं सम्मान जिनको उन्होंने ग्रहण किया है: फादर ला फाँट स्वर्ण पदक (1950), गंगा प्रसाद स्वर्ण पदक (1952), त्रिपुंदेश्वर मित्रा स्वर्ण पदक (1952),एम. एससी. के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय स्वर्ण पदक (1952), कृष्णन स्वर्ण पदक (1972), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग राष्ट्रीय प्राध्यापक (1985-86), आई जी यू का दशवार्षिक पुरस्कार (1986), राष्ट्रीय खनिज पुरस्कार (1986-87), राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, खड़गपुर में ऐड्जन्क्ट प्रोफेसर (1989)।
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पद्मश्री डॉ. हर्ष के. गुप्ता (1942 में जन्म) ने राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (एन जी आर आई) हैदराबाद के निदेशक के रूप में 1992 से लगभग एक दशक कार्य किया। उनके नेतृत्व में, एन जी आर आई भारत में सर्वोच्च भौमविज्ञान अनुसंधान संस्थान के रूप में उभरा। उनके दर्शनात्मक नेतृत्व ने एन जी आर आई को हाइड्रोकर्बन, खनिजों, और भूजल संसाधनों, जो कि भारत में कृषि के लिए एक निर्णायक सवाल है, में देश की आवश्यकताओं का समाधान करने के लिए मूलभूत अनुसंधान क्षमताओं का उपयोग करने की दिशा में आगे बढ़ाया।

डॉ. गुप्ता द्वारा संभाले गए पद:

भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान के सदस्य (हैसियत: राज्य मंत्री, भारत सरकार, 2011-2014); भारत सरकार के सचिव, महासागर विकास विभाग (2001-2005); निदेशक, एन जी आर आई (1992-2001); सलाहकार, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार (1990-1992); कुलपति, कोचिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (1987-1990); निदेशक, पृथ्वी विज्ञान अध्ययन केंद्र, त्रिवेंद्रम (1982-1987); और परियोजना निदेशक, केरल खनिज विकास एवं अन्वेषण परियोजना (1982-1987); ऐडजन्क्ट प्रोफेसर, टेक्सस विश्वविद्यालय, डल्लास (1978-2001); अनुसंधान वैज्ञानिक, टेक्सस विश्वविद्यालय, डल्लास (1972-1977); वरिष्ठ युनेस्को अध्येतावृत्ति, इटरनैशनल इंस्टिट्यूट ऑफ साइस्मॉलजी एण्ड अर्थक्वेक इंजीनियरिंग (आई आई एस ई ई), टोक्यो (1971-72); वैज्ञानिक, एन जी आर आई (1967-1971); युनेस्को अध्येतावृत्ति, आई आई एस ई ई, टोक्यो (1966-1967); वैज्ञानिक, एन जी आर आई (1964-1966); यूरोप एवं यू एस ए में कई विश्वविद्यालय एवं संस्थानों में अभ्यागत प्रोफेसर। विविध अवसरों पर युनेस्को, कॉमन वेल्थ साइंस काउन्सिल, अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा प्राधिकरण, आई सी एस यू आदि के सलाहकार/परामर्शदाता रहे हैं।

प्रमुख वैज्ञानिक योगदान:

प्रो. गुप्ता का कार्य विश्व भर में 1)हिमालय और तिब्बत पठार क्षेत्र के तले एक बहुत ही मोटी भूपर्पटी (65~70 कि.मी.) मौजूद होने के संबंध में 1967 में प्रथम प्रमाण देने, जिसकी पुष्टि बाद में भूकंपी सर्वेक्षणों द्वारा 1980 के आस-पास की गई 2) साधारण भूकंपों से कृत्रिम जलाशय जनित भूकंपों को पृथक करने के लिए मानदंड विकसित करने, जिन्हें विश्व भर में जलाशयों के निर्माण के लिए सुरक्षित जगहों का पता करने के लिए उपयोग किया गया 3) 1986 में उत्तर-पूर्वी भारत क्षेत्र में एक ~8 तीव्रता वाले भूकंप का मध्यकालिक पूर्वानुमान करने, जो कि 6 अगस्त 1988 को सच हुआ 4) वैश्विक भूकंपी जोखिम मूल्यांकन कार्यक्रम (जी-एस एच ए पी) की संचालन समिति की अध्यक्षता करने, इसमें करीब 500 वैज्ञानिकों ने 1992 से 1999 तक कार्य किया और वैश्विक भूकंपी जोखिम मानचित्र तैयार किया 5) गैस हाइड्रेट कार्यक्रम का अग्रदूत बनने और भारत के अनन्य आर्थिक क्षेत्र में गैस हाइड्रेटों के स्थायित्व के लिए क्षेत्रों का सीमांकन करने 6) कोयना क्षेत्र में उत्पन्न भूकंपों की उत्पत्ति के विस्तृत अध्ययन आरंभ करने और अल्पकालिक भूकंपों का सफलता से पूर्वानुमान करने के लिए मान्यता प्राप्त है।

भारतीय सुनामी चेतावनी प्रणाली:

26 दिसंबर 2004 का 9.3 तीव्रता वाला विध्वंसकारी सुमात्रा भूकंप और जिसके परिणाम स्वरूप उत्पन्न सुनामी, जिसने दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व एशिया में 250,000 लोगों की जान ली, घटित होने के बाद, प्रो. गुप्ता ने भारत की सुनामी चेतावनी प्रणाली की स्थापना करने की अगुआई की, जो कि सिर्फ 30 महीने के समय में संपन्न हुई। इसे अब विश्व भर में सर्वोत्तम सुनामी चेतावनी प्रणालियों में से एक माना जाता है।

निम्न तापमान ऊष्मा विलवणन:

प्रो. गुप्ता के नेतृत्व में, कवरत्ति, लक्षद्वीप में 2005 पहला निम्न-तापमान ऊष्मा विलवणन संयंत्र की स्थापना की गई। यह दुनिया भर में अपनी किस्म का पहला संयंत्र है और पिछले 7 वर्षों से 100,000 ली. प्रतिदिन से भी अधिक शुद्ध पानी उत्पादित कर रहा है। कवरत्ति की आबादी लगभग 10,000 लोग है। इसके परिमाण स्वरूप अस्पताल में भर्ती होने वाले मरीजों की संख्या बाद के वर्षों में आधा कम हो गई क्यों कि ज्यादातर बीमारियाँ पानी से होने वाली बीमारियों से संबंधित थीं।

विधिक महाद्वीपीय शेल्फ:

प्रो. गुप्ता ने भारत के विधिक महाद्वीपीय शेल्फ कार्यक्रम का निर्देशन किया, जिसमें 31,000 कि.मी. का भूकंपी डाटा, प्रबल गुरुत्व, चुंबकीय और अन्य भू-डाटा संग्रहीत किया गया। इससे महाद्वीपीय शेल्फ की सीमाओं पर संयुक्त राष्ट्र आयोग में भारत का दावा प्रस्तुत हो पाया।

प्रकाशन:

डॉ. गुप्ता ने 200 से अधिक वैज्ञानिक शोध पत्र अंतर्राष्ट्रीय रूप से पतिष्ठा प्राप्त जर्नलों में प्रकाशित किया, एलसेवियर एवं स्प्रिंगर द्वारा प्रकाशित 5 पुस्तकों की रचना की, और 21 खंडों का संपादन किया। उनके शोध पत्रों में से एक शोध पत्र को मुक्त विश्वविद्यालय (यू.के.) की भूभौतिकी की पाठ्य पुस्तक में एक अध्याय के रूप में ग्रहण किया गया। उनकी पहली पुस्तक, "डैम्स एण्ड अर्थक्वेक्स" 1976 में प्रकाशित हुई और रूसी एवं चीनी भाषाओं में अनूदित हुई। प्रो. गुप्ता ने "एनसाइक्लोपीडिया ऑफ सॉलिड अर्थ जियोफिज़िक्स" का संकलन एवं संपादन किया। स्प्रिंगर द्वारा प्रकाशित 1500+ पन्नों की भारी दो खंडों वाली यह पुस्तक विश्व स्तर पर एक मील का पत्थर है (वेबसाइट: www.spinger.com external link ).

अंटार्कटिका:

प्रो. गुप्ता अंटार्कटिका के लिए तृतीय भारतीय वैज्ञानिक अभियान का नेतृत्व किया (1983-1984), जो बहुत भारी बाधाओं के बावजूद एक अंटार्कटिक ग्रीष्म की बहुत कम अवधि में वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए स्थायी बेस स्टेशन स्थापित करने में सफल हुआ। यह कीर्तिमान अभी भी कायम है। इससे भारत "अंटार्कटिक संधि" के सदस्य देशों के विशेष क्लब में सदस्य के रूप में शामिल हुआ।

आई यू जी जी / आई सी एस यू / ए जी यू / ए ओ जी एस आदि:

आई यू जी जी (अध्यक्ष 2011-2015, उपाध्यक्ष 2007-2011, दो कार्यकाल के लिए ब्यूरो सदस्य, 1999-2003 एवं 2003 - 2007); आई ए एस पी ई आई (उपाध्यक्ष, 1995-1999, कार्यकारिणी समिति सदस्य 1991-1995) के साथ सुदीर्घ संबंध; अध्यक्ष, वैश्विक भूकंपी जोखिम कार्यक्रम (जी एस एच ए पी) की संचालन समिति, 1992-1999; आई सी एस यू (सदस्य सी एस पी आर, दो कार्यकाल, 2005-2008 एवं 2008-2011); अध्यक्ष, जोखिम समूह, आई सी एस यू एशिया एवं पैसिफिक का क्षेत्रीय कार्यालय; आई एल पी (ब्यूरो सदस्य, 1986-1989; और 1996 में इन्हें आई एल पी के आजीवन ब्यूरो सदस्य बनाया गया); एशियाई भूकंपवैज्ञानिक आयोग के संस्थापक अध्यक्ष (1996-2000); आई यू जी एस (पार्षद, 2000-2004); उपाध्यक्ष एवं अध्यक्ष ए ओ जी एस (2010-2013); सदस्य, आई एस डी आर की वैज्ञानिक तथा तकनीकी समिति (2009-); सदस्य, ए जी यू लोक कार्य समिति, द न्यू ए जी यू और ए जी यू अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभागिता समिति के सदस्य आदि।

अंतर्राष्ट्रीय भूगणित एवं भूभौतिकी संघ (आई यी जी जी) में 70 से अधिक देश सदस्य हैं। 96 वर्षों के इसके इतिहास में, प्रो. गुप्ता इसके अध्यक्ष बनने वाले दूसरे भारतीय वैज्ञानिक हैं। एशिया ओषानिया जियोसाइंस सोसाइटी (ए ओ जी एस) का अधिकार-क्षेत्र उत्तर में जापान से लेकर दक्षिण में न्यूज़ीलैण्ड तक है जिसमें 40 से अधिक देश शामिल हैं। प्रो. गुप्ता इसके अध्यक्ष बनने वाले एक मात्र भारतीय वैज्ञानिक हैं।

संस्था निर्माण

डॉ. गुप्ता बहुत कम उम्र से ही संस्था निर्माण के वरिष्ठ प्रशासनिक पदों में शामिल रहे हैं। उनकी देखरेख में त्रिवेंद्रम में पृथ्वी विज्ञान अध्ययन केंद्र का निर्माण हुआ। इस कार्य में दो वर्ष (1984-86) के कम समय में संपूर्ण परिसर का विकास करना शामिल है। उन्होंने अंटार्कटिका में भारतीय वैज्ञानिक स्टेशन निर्माण करने का उत्तरदायित्व भी निभाया। इस कार्य को उन्होंने श्रेष्ठता के साथ संपन्न किया और सभी कार्यों को एक अंटार्कटिक ग्रीष्म (1983-84) की बहुत कम अवधि में पूरा किया। कोचिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति (वे उस समय देश में 45 वर्ष की आयु के सब से कम आयु वाले कुलपति थे) की हैसियत से उन्होंने कई कार्य किए, जिनमें से एक है डी आर डी ओ - कोचिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कंप्यूटर केंद्र की स्थापना, जो कि संयुक्त अनुसंधान परियोजनाओं के लिए उस समय उपलब्ध अत्याधुनिक कंप्यूटरों से सज्जित है। उन्होंने जनवरी 1990 में साइंस कोंग्रेस की मेज़बानी की, यह केरल में पहला साइंस कोंग्रेस है, जिसे अब भी लोग बेहतरीन ढंग से आयोजित साइंस कोंग्रेस बैठकों में से एक के रूप में याद रखते हैं। डी एस टी में, उनके दो वर्ष के कार्य-काल (1990-92) के दौरान उन्होंने अनेक नए कार्यक्रम आरंभ किए जिसमें आई जी बी पी परियोजनाओं पर डी एस टी इनपुट्स को समेकित करना शामिल है।

1992-2001 के दौरान, डॉ. गुप्ता राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान (एन जी आर आई), हैदराबाद में निदेशक थे। एन जी आर आई बहुत कम सर्वोत्तम सीएसआईआर प्रयोगशालाओं में से एक होने की स्थिति पर पहुँच गया। 1993-94 के दौरान महज एक करोड़ बाह्य नकद प्रवाह से, वह 1996-97 के दौरान 11 करोड़ तक बढ़ गया। एन जी आर आई ने 1997 के दौरान व्यवसाय विकास एवं प्रौद्योगिकी विपणन के लिए प्रतिष्ठित प्रौद्योगिकी पुरस्कार जीता। एन जी आर आई में, डॉ. गुप्ता ने देश की बुनियादी आवश्यकताओं के प्रति पृथ्वी विज्ञानों के अनुप्रयोग में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। इस कार्य में दक्कन ट्रैप आच्छादन के तले मध्यजीवी अवसादों (जो कि पेट्रोलियमधारी हो सकते हैं) का निरूपण शामिल है, जिससे भारत के अपतट क्षेत्र में गैस हाइड्रेटों के लिए किए जाने वाले अन्वेषण में एक नया अध्याय खोला गया। एन जी आर आई ने जल संसाधन की खोज, वर्षा जल संचयन और जल प्रदूषण से संबंधित अध्ययनों के साथ-साथ भूकंप जोखिमों का मूल्यांकन और सुरक्षा के लिए अर्थोपाय तय करने में उल्लेखनीय ढंग से योगदान दिया।

भारतीय विज्ञान कोंग्रेस असोसिएशन:

कोचिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में, प्रो. गुप्ता ने कोचिन में 1990 में साइंस कोंग्रेस की मेज़बानी की। वे 1993/1994 में पृथ्वी विज्ञान खंड के अध्यक्ष थे। वे आई सी एस ए के महा अध्यक्ष चुने गए और उन्होंने 2007 में अण्णामलै विश्वविद्यालय में "प्लैनेट अर्थ" विषय के साथ बहुत ही सफल साइंस कोंग्रेस का आयोजन किया। इस पद पर आसीन पूर्व पृथ्वी वैज्ञानिक 1972 में प्रो. डब्ल्यू.डी. वेस्ट थे।

अनेक पुरस्कार हैं, उनमें से कुछ:

1977 भारतीय खनि विद्यापीठ स्वर्ण जयंती "उत्कृष्ट भूतपूर्व छात्र" पुरस्कार
1978 भारतीय भूभौतिकीय संघ का कृष्णन स्वर्ण पदक
1983 पृथ्वी विज्ञान में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के लिए शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार
1985 यूएसएसआर विज्ञान अकादमी "अंतर्राष्ट्रीय भूभौतिकी के 100 वर्ष" स्मारक पदक
1989 प्रथम "प्रो. अनिल कुमार गंगूली" स्मारक भाषण पुरस्कार, बी ए आर सी, मुंबई,
1991 भारत सरकार का राष्ट्रीय खनिज पुरस्कार
1993 परमाणु ऊर्जा विभाग, भारत सरकार का "सी.वी. रामन लेक्चरशिप"
1995 भारतीय विज्ञान कोंग्रेस असोसिएशन जयंती व्याख्यान
1995 व्यवसाय विकास एवं प्रौद्योगिकी विपणन के लिए सीएसआईआर प्रौद्योगिकी पुरस्कार
1997-98 भारतीय विज्ञान कोंग्रेस असोसिएशन नौवां प्रोफेसर के.पी. रोडे स्मारक व्याख्यान
1998 इरानी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान संगठन, टेहरान, इरान का 11वाँ अंतर्राष्ट्रीय खरज़मी समारोह द्वारा द्वितीय उत्कृष्ट निष्पादन पुरस्कार
1998 भारतीय भूभौतिकीय संघ का दशवार्षिक पुरस्कार
1999 फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एण्ड इंडस्ट्री, नई दिल्ली, भौतिक विज्ञानों के लिए पुरस्कार, 1998-99
1999 आई जी यू सहस्राब्दि पुरस्कार
2000 भारतीय अनुप्रयुक्त भूरसायनज्ञ सोसाइटी सहस्राब्दि पुरस्कार
2001 विक्रम साराभाई स्मारक व्याख्यान, अंतरिक्ष विभाग
2001 प्रथम डॉ. एच.एन. सिद्दिक़ी स्मारक व्याख्यान, भारतीय भूभौतिकीय संघ
2002 भारतीय विज्ञान कोंग्रेस असोसिएशन का 22वाँ जी.पी. चटर्जी स्मारक पुरस्कार
2003 भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी की जवाहरलाल नेहरू अभ्यागत अध्येतावृत्ति 2003
2003 चौथा प्रो. सी करुणाकरन धर्मस्व व्याख्यान
2003 ब्रून स्मारक व्याख्यान, अंतर्राष्ट्रीय समुद्रवैज्ञानिक आयोग सभा, पैरिस का 22वाँ सत्र
2003 उत्कृष्टता के लिए राष्ट्रीय खनिज पुरस्कार-2002
2004 आई एन एस ए का प्रो. के. नाहा स्मारक पदक (2004)
2004 सर अल्लाडि कृष्णस्वामी अय्यर दर्मस्व व्याख्यान 2004
2005 प्रो. जे.बी. औडेन स्मारक व्याख्यान 2005
2005 प्रो. एम. कुरुप स्मारक व्याख्यान 2005
2005 प्रो. वाई. नायुडम्मा स्मारक व्याख्यान 2005
2006 पद्मश्री 2006
2008 ए पी ए एस से 2008 के लिए प्रो. वाई. नायुडम्मा स्मारक स्वर्ण पदक
2008* ए जी यू से 2008 के लिए वैल्डो ई. स्मिथ पदक पुरस्कार।
2008 हैदराबाद दक्कन रोटरी कल्ब द्वारा रोटरी व्यावसायिक उत्कृष्टता पुरस्कार 2009
2009 सनातन धर्म धर्मार्थ न्यास द्वारा शिवानन्दा श्रेष्ठ नागरिक पुरस्कार 2009
2012 विशिष्ट भूतपूर्व छात्र, आई.आई.टी., रूड़की; 2012
2013 बसंत सम्मान (उत्कृष्ट भूतपूर्व छात्र), भारतीय खनि विद्यापीठ
2014 भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी का दौलत सिंह कोठारी स्मारक व्याख्यान 2014

* अमरीकी भूभौतिकीय संघ द्वारा वैल्डो स्मिथ पदक से पुरस्कृत व्यक्तियों में विकासशील देशों से प्रो. गुप्ता अभी तक पहले और एक मात्र वैज्ञानिक है। वे एशिया से भी दूसरे व्यक्ति हैं, जो दूसरा एक मात्र पुरस्कृत व्यक्ति जापान से हैं।

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डॉ. विजय प्रसाद डिमरी ने अक्तूबर 2001 से फरवरी 2010 तक संस्थान के निदेशक के रूप में कार्य किया। उनके नेतृत्व में, भूविज्ञान में एन जी आर आई की उपलब्धियाँ उल्लेखनीय रही हैं। एन जी आर आई को देश के भूवैज्ञानिक संस्थाओं में से अनुसंधान आउटपुट के विषय में प्रथम स्थान दिया गया (जून 2006, निस्केयर, नई दिल्ली)। 2005-06 के दौरान प्रायोजित परियोजनाओं से बाह्य नकद प्रवाह अर्जित करने में सी एस आई आर की सभी प्रयोगशालाओं में से रा.भूभौ.अ.सं. प्रथम स्थान पर था। स्कोपस 2007 द्वारा किए गए विश्लेषण के अनुसार उद्धरण की दृष्टि से एन जी आर आई को विश्व की शीर्षस्थ 1% संस्थाओं में स्थान दिया गया।

इससे पूर्व, डॉ. डिमरी ने 1969 में भारतीय खनि विद्यापीठ, धनबाद से अनुप्रयुक्त भूभौतिकी में अपनी स्नातकोत्तर शिक्षा प्राप्त करने के बाद एन जी आर आई में सैद्धान्तिक भूभौतिकीय समूह में 1970 में कनिष्ठ अनुसंधान अध्येता के रूप में कार्य आरंभ किया। डॉ. डिमरी ने जर्मन महाद्वीपीय गभीर वेधन परियोजना (केटीबी) सहित कई गभीर वेध-छिद्रों से पाए गए भौतिक गुणधर्मों जैसे घनत्व, सुग्राहिता, परावर्तकता आदि के सावधानीपूर्वक विश्लेषण के बाद यथार्थिक भूविज्ञान हेतु भूभौतिकी की समस्याओं का पुनःसूत्रण किया जो गणितीय सरलता हेतु अब तक के माने गए यादृच्छिक वितरण के बजाय फ्रैक्टल वितरण का अनुसरण करता है। उनके सैद्धान्तिक कार्य ने विभव-क्षेत्र एवं उनके स्रोतों के बीच एक संबंध स्थापित किया और इस प्रकार से हाइड्रोकार्बन अन्वेषण के लिए अधस्तल जटिल भूगर्भीय संरचनाओं को चित्रित करने हेतु सोपानी स्पेक्ट्रमी विश्लेषण की एक नई तकनीक विकसित हुई। फ्रैक्टल ज्यामिति का उपयोग करके पृथ्वी सतह के नीचे पड़ा हुआ कोई भी जटिल पदार्थ का प्रतिरूपण करने की इस नई विधि को यू.एस. पेटेंट प्रदान किया गया और इसके परिष्कृत तेल निकासी, जलभर प्रतिरूपण आदि कई अनुप्रयोग हैं।

डॉ. डिमरी ने गुरुत्व मापन से जुड़ी हुई मिथ्या गुरुत्व असंगतियों की संख्या के शब्दों में गुरुत्व व्याख्या की सुपरिचित संदिग्धता का प्रमात्रीकरण करने वाले पहले व्यक्ति थे। इसके लिए उन्होंने एन्ट्रॉपी तथा सूचना सिद्धान्त की चैनल क्षमता की संकल्पना, जो उनके पीएचडी कार्य का एक भाग है, का उपयोग किया। तत्पश्चात् उन्होंने बंगाल की खाड़ी एवं हिन्द महासागर के लिए सहभिन्नता गुरुत्व प्रतिरूप की परिकल्पना की।

डॉ. डिमरी ने भारतीय भूकंपों, हाइड्रोकार्बन अन्वेषण तथा भूजल के लिए विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए भूभौतिकीय डाटा विश्लेषण एवं व्याख्या करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। भारत के कोयना-वार्ना क्षेत्र में जलाशय जनित भूकंपों की स्वयं संगठित फ्रैक्टल भूकंपनीयता उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है। वर्तमान में डॉ. डिमरी अन्य वैज्ञानिकों के साथ सुमात्रा एवं मकरन अधोपतन क्षेत्रों से उत्पन्न समुद्री भूकंपों द्वारा होने वाले सुनामी तरंग संचरण का प्रतिरूपण कर रहे हैं।

डॉ. डिमरी ने, जिनका नार्वे एवं जर्मनी में अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र में साढ़े चार वर्ष से अधिक अनुभव है, 'ऊर्जा सुरक्षा', 'जल सुरक्षा', 'जोखिम मूल्यांकन', 'महासागर अध्ययन' और 'अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सीमान्त अनुसंधान क्षेत्रों' में प्रमुख वैज्ञानिक कार्यक्रमों का रूपांकन किया।

पुरस्कार एवं सम्मान

  1. 2010 में भारत सरकार द्वारा पद्म श्री पुरस्कार।
  2. दिसंबर 2007 में अरैखिक भूभौतिकी के क्षेत्र में अमरीकी भूभौतिकीय संघ में लोरेंज पुरस्कार व्याख्याता पाने वाले पहले एशियायी व्यक्ति।
  3. 2007 में भारत के प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा भारतीय विज्ञान कोंग्रेस असोसिएशन का जी.पी. चटर्जी पुरस्कार प्राप्त।
  4. 2008 में आँध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा फैप्स्सी का उत्कृष्ट वैज्ञानिक पुरस्कार प्राप्त।
  5. भारत सरकार का महासागर विकास विभाग पुरस्कार, 2004.
  6. अधिसदस्य, तृतीय विश्व विज्ञान अकादमी, इटली।
  7. अधिसदस्य, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आई एन एस ए), नई दिल्ली।
  8. अधिसदस्य, राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, इलाहाबाद।
  9. अधिसदस्य, आँ.प्र. विज्ञान अकादमी, आँध्र प्रदेश।
  10. अध्यक्ष, आँ.प्र. विज्ञान अकादमी (2010 से)।
  11. अध्यक्ष, भारतीय भूभौतिकीय संघ, 2006-2010.
  12. अनुभागीय अध्यक्ष, भारतीय विज्ञान कोंग्रेस असोसिएशन का पृथ्वी विज्ञान अनुभाग, 2007.
  13. देश में अनेक पृथ्वी विज्ञान संस्थाओं की शासी परिषदों और अनुसंधान सलाहकार परिषदों के अध्यक्ष एवं सदस्य। कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समितियों के सदस्य के रूप में कार्य किया, जैसे अध्यक्ष, अंतर्राष्ट्रीय भूगणित एवं भूभौतिकी संघ (2005-2007)।
  14. सीएसआईआर-राष्ट्रीय भूभौतिकीय अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद में सीएसआईआर-विशिष्ट वैज्ञानिक (अक्तूबर 2010 - अक्तूबर 2013)

वर्तमान में, वे 07-11-2013 से आई एन एस ए वरिष्ठ वैज्ञानिक के रूप में कार्य कर रहे हैं।

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प्रो. मृणाल के. सेन ने भारतीय खनि विद्यापीठ से बी.एस.सी., एम.एस.सी. उपाधियाँ और हवई विश्वविद्यालय मनोआ से पी.एच.डी. प्राप्त की। ग्रेजुएट स्कूल में दाखिल होने से पहले, प्रो. सेन ने तेल उद्योग में अन्वेषण भूभौतिकीविद् के रूप में काम किया। पसडेना, कैलिफोर्निया की लॉस एंजेलेस बेसिन में भूकंपी जोखिम आकलन के अध्ययन पर दो वर्ष काम करने के बाद इन्होंने टेक्सस विश्वविद्यालय के आस्टिन भूभौतिकी संस्थान में कार्यभार ग्रहण किया। वहाँ ये पूर्ण प्रोफेसर बने और टेक्सस विश्वविद्यालय में इन्हें अनुप्रयुक्त भूकंपविज्ञान में जैक्सन चेयर प्रदान की गई।

प्रो. सेन के अनुसंधान विषयों में भूकंपी तरंग संचरण, प्रतिलोम समस्याएँ, भूकंपी प्रतिबिंबन, तैलाशय लक्षण वर्णन और अभिकलनात्मक भूभौतिकी शामिल हैं। ये विषमदैशिकता और विभंगों के लक्षण वर्णन के साथ-साथ भूकंपी तरंग संचरण के विशेषज्ञ हैं और अग्रवर्ती और प्रतिलोम प्रतिरूपण के लिए विश्लेषणात्मक और संख्यात्मक तकनीकें विकसित करते हैं। प्रो. सेन अपने भूभौतिकीय प्रतिलोमन के लिए सार्वभौमिक इष्टतमीकरण विधियों से संबंधित कार्य के लिए जाने जाते हैं। बहुत वर्षों से, इन्होंने कई भूभौतिकीय पैरामीटर आकलन समस्याओं पर कार्य किया। प्रो. सेन और उनके साथी सिद्ध कर पाए कि अनुकारित अभितापन (एस ए) और जननिक ऐल्गोरिथ्म (जी ए) जैसी सार्वभौमिक इष्टतमीकरण विधियों का भूकंपी तरंग रूप प्रतिलोमन, गुरुत्व व्याख्याओं और भूंकपी प्रवास-वेग विश्लेषण जैसे कई भूभौतिकीय अनुप्रयोगों के लिए प्रभावी रूप में प्रयोग किया जा सकता है। इन्होंने यह भी दर्शाया कि मॉडल स्पेस में अनिश्चितताओं और पश्च प्रायिकता घनत्व फलन (पी पी डी) का लक्षण वर्णन करने के लिए गिब्स नमूना चयन और मेट्रोपोलिस नियम का उपयोग किया जा सकता है। इन्होंने भूकंपी समतल तरंग विश्लेषण पद्धतियों को विषमदैशिक माध्यमों के लिए इस्तेमाल किया और विषमदैशिकता की डिग्री को निर्धारित करने वाले पैरामीटरों का आकलन करने के लिए तकनीकें विकसित की हैं। अन्वेषण भूकंपविज्ञान में, इनकी हाल की उपलब्धियों में, भूकंपी और वेल लॉग डाटा इस्तेमाल करके तैलाशयों का लक्षण वर्णन करने के लिए नवीन विधियाँ विकसित करना, गैस हाइड्रेट धारी अवसादों के लिए भूकंपी परावर्तन डाटा से पाए गए पी - और एस - तरंग वेग प्रतिरूपों का आकलन करना, और, संरचनात्मक दृष्टि से जटिल क्षेत्रों में भूकंपी प्रतिबिंबन और वेग आकलन विधियों में सुधार करना आदि शामिल हैं। संपूर्ण पृथ्वी भूकंपविज्ञान में, इन्होंने भू-गर्भ के "डी" क्षेत्र में विषमदैशिकता का आकलन किया। ये अन्वेषण तथा संपूर्ण पृथ्वी भूकंप विज्ञान, दोनों में ऐसी अनुसंधान समस्याओं पर सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं, जिनके समाधान के लिए नई विश्लेषणात्मक तथा संख्यात्मक विधियाँ विकसित करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए ये भूकंपी परावर्तन डाटा इस्तेमाल करके उच्च विभेदन तैलाशय गुण-धर्मों का आकलन करने का प्रयास कर रहें हैं और इसके लिए निर्धारणात्मक एवं प्रसंभाव्य ऐल्गोरिथ्मों का उपयोग कर रहे हैं।

प्रो. सेन ने पचास से अधिक डॉक्टोरल और पोस्ट-डॉक्टोरल छात्रों का पर्यवेक्षण किया। प्रो. सेन और उनके छात्रों ने परिमित अंतर और परिमित अंश विधियों का परिशुद्ध त्रुटि विश्लेषण किया। इन्होंने पथ समाकल सूत्रीकरण, पूर्ण तरंग रूप प्रतिलोमन और काल च्युति भूकंपन विज्ञान सहित तैलाशय लक्षण वर्णन के आधार पर कृत्रिम भूकंपलेखों के अभिकलन के लिए नई विधियाँ भी विकसित की हैं। प्रो. सेन कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समितियों में सदस्य के रूप में रहते हैं, और जियोफिज़िक्स, जर्नल ऑफ साइस्मिक एक्सप्लोरेशन और इंटरनैशनल जर्नल ऑफ जियोफिज़िक्स जैसे प्रमुख जर्नलों के सह संपादक हैं। ये एस.ई.जी. और एस.पी.जी. तकनीकी समितियों में सदस्य के रूप में सामान्यतया रहते हैं। ये विविध उद्योग लघु पाठ्यक्रमों में अनुदेशक रहे हैं। इन पाठ्यक्रमों में 'पूर्ण तरंग रूप प्रतिलोमन' पर एक एस.ई.जी. लघु पाठ्यक्रम भी शामिल है।

 

पृष्ठ अंतिम अपडेट: 28-07-2023